मुद्दों पर परदा

उत्तर प्रदेश में मतदान शायद भारतीय राजनीति में सबसे अहम भूमिका अदा करने के साथ, देश की दशा-दिशा तय करते हैं। लेकिन यह देख कर ताज्जुब और आक्रोश भी पैदा हुआ कि वहां जन सरोकार से जुड़े मुद्दों पर नेता, पत्र-पत्रकार, स्वयंभू सामाजिक ठेकेदार और यहां तक कि मतदाता भी ध्यान नहीं देना चाहते। यह सबसे दयनीय स्थिति है कि जहां के पैदावार से तीन और देश का पेट भर जाए, वहां के किसान खुद रो रहे हैं और इनके पीछे कोई नहीं है। राज्य के उत्तर-पश्चिमी इलाकों के किसानों की हालत तो अपेक्षया ठीक है, लेकिन पूर्वी क्षेत्र के किसानों के हालात बदतर हैं। इस क्षेत्र में सबसे अहम नगदी फसल गन्ने को माना जाता है, लेकिन आज सबसे बुरी हालत गन्ना उत्पादक किसानों की ही है। महीनों चली नूरा-कुश्ती के बाद आखिरकार चीनी मिल मालिकों ने मिल शुरू तो किया, लेकिन उससे किसान नहीं, सिर्फ सरकार को वोट-चंदे और मिल मालिकों को फायदा होने वाला है।
दरअसल, अखिलेश यादव की सरकार ने चीनी मिलों के लिए अपना पिटारा खोल दिया। कई तरह के करों की छूट वह पहले ही दे चुकी है। चालू सत्र में गन्ना समितियों के कमीशन की भरपाई प्रदेश सरकार करेगी। इससे चीनी मिलों को करीब पांच सौ करोड़ रुपए का लाभ मिलेगा। शीरा बिक्री पर नियंत्रण हटाने से चीनी उद्योग को एक सौ सड़सठ करोड़ का लाभ होगा। यानी एक हजार छियालीस करोड़ रुपए की रियायतें चालू मौसम में चीनी उद्योग को दी गई हैं। चीनी मिलें गन्ने की कीमत दो सौ अस्सी रुपए प्रति क्विंटल अदा करने पर राजी हैं, लेकिन इसका भुगतान दो किस्तों में किया जाएगा। ध्यान देने लायक बात यह है कि दो सौ अस्सी रुपए तो गत वर्ष भी गन्ने का मूल्य था तो फिर इसमें महंगाई की मार झेलते किसानों को क्या मिल रहा है? जरूरत से संबंधित सारी वस्तुओं की ऊंची कीमतों के बरक्स मजदूरी-आमदनी मेंकहीं कोई इजाफा नहीं है। लेकिन कोई इस मसले पर नहीं बोल रहा है।
लगभग एक महीने देर से शुरू हुई मिलों ने गेहूं के आगामी फसल को पूरी तरह निगल लिया है। खेतों से गन्ना खाली न होने के कारण अभी तक गेहूं की पांच फीसद भी बुआई नहीं हो सकी है। जबकि दस दिसंबर तक गेहूं की सौ फीसदी बुआई हो जानी चाहिए थी। इस बार गेहूं के क्षेत्रफल के साथ प्रति हेक्टेयर पांच क्विंटल उत्पादन बढ़ाने की योजना भी कृषि विभाग ने बना रखी थी। लेकिन ये सभी धरी की धरी रह गर्इं। कृषि विभाग की योजना पर चीनी मिलों ने ऐसे पानी फेर दिया है कि अधिक उत्पादन की तो दूर, अबकी गेहूं के दाने-दाने को लोग तरसते नजर आएंगे। ऐसे में अब किसान अगर गन्ने से थोड़ी-बहुत कमाई करते भी तो वह गेहूं की खरीद में गंवा देना है।
दूसरी ओर, राजनीतिक दलों में कोई मंदिर की लहर बना रहा है तो कोई मस्जिद की! कोई आरक्षण को तूल दे रहा है तो कोई जातिवाद को! ऐसा लग रहा है कि सभी राजनीतिक दलों ने कोई गुप्त समझौता कर रखा है और ‘बांटों और राज करो’ का नजरिया कायम है। मंदिर-मस्जिद और शौचालय आदि बनवाने को सब बेकरार हैं, लेकिन राज्य के फैजाबाद, गोंडा, बस्ती, बहराइच आदि जिले में संकट से जूझ रहे किसानों की किसी को नहीं पड़ी। यहां की लचर स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था, मार्ग-परिवहन, उद्योगविहीनता, मजदूरी के लिए हजारों की तादाद में घर छोड़ते लोग भी कोई मुद्दे नहीं हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे तमाम मुद्दे चुनावी परिप्रेक्ष्य से लगभग नदारद हैं और उनकी जगह सभी राजनीतिक दल सिर्फ मासूम किसानों को ठगने के लिए बेबुनियाद लहर का ताना-बाना बुन रहे हैं।